विश्व आर्थिक मंच द्वारा हाल में प्रस्तुत किये गए लैंगिक अंतर के आंकड़ों ने एक ज्वलंत प्रश्न खड़ा किया है कि शिक्षा, आय, सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र में आधी दुनिया को उसका हक क्यों नहीं मिल पा रहा है? निस्संदेह, हमारे सत्ताधीशों को सोचना चाहिए कि लैंगिक अंतर सूचकांक में भारत 146 देशों में 129वें स्थान पर क्यों है? लगातार महिलाओं की दोयम दर्जा की स्थिति का बना रहना नीति-नियंताओं के लिये आत्ममंथन का मौका हैं। निश्चय ही यह स्थिति भारत की तरक्की के दावों से मेल नहीं खाती। इसके बावजूद उम्मीद जगाने वाला तथ्य है कि पिछले वर्ष जनप्रतिनिधि संस्थाओं में महिलाओं की एक तिहाई हिस्सेदारी को लेकर विधेयक पारित हो चुका है। इसके बावजूद हाल में सामने आए आंकड़े परेशान करने वाले हैं और तरक्की के दावों पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं। यह विचारणीय प्रश्न है कि सरकार द्वारा महिलाओं के कल्याण के लिए अनेक नीतियां बनाने और कायदे कानूनों में बदलाव के बावजूद लैंगिक असमानता की खाई गहरी क्यों होती जा रही है। ये स्थितियां समाज में इस मुद्दे पर खुले विमर्श की जरूरत को बताती हैं। हालिया लोकसभा चुनाव में सीमित मात्रा में महिलाओं के संसद में पहुंचने ने भी कई सवालों को जन्म दिया है। निश्चित रूप से तमाम सरकारी घोषणाओं के बावजूद जमीन पर महिला असमानता के दंश विद्यमान रहना बड़ी चुनौती है।
लैंगिक अंतर सूचकांक में पिछले साल भारत 127वें स्थान पर था, जो 2022 में 135वें स्थान से 1.4 प्रतिशत अंक और आठ पायदान ऊपर था। लेकिन इस वर्ष फिर दो पायदान ऊपर चढ़ा है। सूचकांक में भारत के पड़ोसी देश बांग्लादेश को 99वें, चीन को 106वें, नेपाल को 117वें, श्रीलंका को 122वें, भूटान को 124वें और पाकिस्तान को 145वें स्थान पर रखा गया है। आइसलैंड (93.5 फीसदी) फिर से पहले स्थान पर है और डेढ़ दशक से सूचकांक में सबसे आगे है। शीर्ष 10 में शेष नौ अर्थव्यवस्थाओं में से आठ ने अपने अंतर का 80 फीसदी से अधिक हिस्सा पाट लिया है। निश्चित तौर पर किसी भी समाज में पूर्ण लैंगिक समानता हासिल करने में लंबा समय लगता है, लेकिन इस दिशा में सत्ताधीशों की तरफ से ईमानदार पहल होनी चाहिए। यह भी एक हकीकत है कि दुनिया के सबसे ज्यादा आबादी वाले देश के आंकड़ों की तुलना दक्षिण एशिया के छोटे देशों से नहीं की जा सकती। इसमें दो राय नहीं कि पूरी दुनिया में सरकारों द्वारा लैंगिक समानता के लिये नीतियां बनाने के बावजूद अपेक्षित परिणाम नहीं निकले हैं। जिसकी एक वजह समाज में पुरुष प्रधानता की सोच भी है। जिसके चलते यह आभास होता है कि आधी दुनिया के कल्याण के लिये बनी योजनाएं महज घोषणाओं तथा फाइलों तक सिमट कर रह जाती हैं।
भारत में महिलाओं की उपेक्षा, भेदभाव, अत्याचार एवं असमानता की स्थितियों का बना रहना विडम्बनापूर्ण हैं। भारत में रोजगार और शिक्षा के क्षेत्र में महिलाओं को समान अधिकार दिलाने के स्वर तो बहुत सुनने को मिलते हैं, महिलाओं को आजादी के बाद से ही मतदान का अधिकार भी पुरुषों के बराबर दिया गया है, परन्तु यदि वास्तविक समानता की बात करें तो भारत में आजादी के 75 वर्ष बीत जाने के बाद भी महिलाओं की स्थिति चिन्ताजनक एवं विसंगतिपूर्ण है। हमारे सत्ताधीशों के लिये यह तथ्य विचारणीय है कि हमारे समाज में आर्थिक असमानता क्यों बढ़ रही है? हम समान कार्य के बदले महिलाओं को समान वेतन दे पाने में सफल क्यों नहीं हो पा रहे हैं? जाहिर है यह अंतर तभी खत्म होगा जब समाज में महिलाओं से भेदभाव की सोच पर विराम लगेगा। यह संतोषजनक है कि माध्यमिक शिक्षा में नामांकन में लैंगिक समानता की स्थिति सुधरी है। फिर भी महिला सशक्तीकरण की दिशा में बहुत कुछ किया जाना बाकी है। देर-सवेर महिला आरक्षण कानून का ईमानदार क्रियान्वयन समाज में बदलावकारी भूमिका निभा सकता है। जरूरत इस बात की है कि राजनीतिक नेतृत्व इस मुद्दे को अपेक्षित गंभीरता के साथ देखे।
महिलाएं ही समस्त मानव प्रजाति की धुरी हैं। वो न केवल बच्चे को जन्म देती हैं बल्कि उनका भरण-पोषण और उन्हें संस्कार भी देती हैं। महिलाएं अपने जीवन में एक साथ कई भूमिकाएं जैसे- मां, पत्नी, बहन, शिक्षक, दोस्त बहुत ही खूबसूरती के साथ निभाती हैं। बावजूद क्या कारण है कि आज भी महिला असमानता की स्थितियां बनी हुई है। महिलाओं के सशक्तिकरण के लिये जरूरी है कि अधिक महिलाओं को रोजगार दिलाने के लिए भारत सरकार को जरूरी कदम उठाने होंगे। सरकार को अपनी लैंगिकवादी सोच को छोड़ना पड़ेगा। क्योंकि भारत सरकार के खुद के कर्मचारियों में केवल 11 प्रतिशत महिलाएं हैं। सरकारी नौकरियों में महिलाओं के लिये अधिक एवं नये अवसर सामने आने जरूरी है। भारत में महिला रोजगार को लेकर चिंताजनक स्थितियां हैं। सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकॉनमी (सीएमआईई) नाम के थिंक टैंक ने बताया है कि भारत में केवल 7 प्रतिशत शहरी महिलाएं ऐसी हैं, जिनके पास रोजगार है या वे उसकी तलाश कर रही हैं। सीएमआईई के मुताबिक, महिलाओं को रोजगार देने के मामले में हमारा देश इंडोनेशिया और सऊदी अरब से भी पीछे है। रोजगार या नौकरी का जो क्षेत्र स्त्रियों के सशक्तिकरण का सबसे बड़ा जरिया रहा है, उसमें इनकी भागीदारी का अनुपात बेहद चिंताजनक हालात में पहुंच चुका है। यों जब भी किसी देश या समाज में अचानक या सुनियोजित उथल-पुथल होती है, कोई आपदा, युद्ध एवं राजनीतिक या मनुष्यजनित समस्या खड़ी होती है तो उसका सबसे ज्यादा नकारात्मक असर स्त्रियों पर पड़ता है और उन्हें ही इसका खामियाजा उठाना पड़ता है।
दावोस में हुए वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम में ऑक्सफैम ने अपनी एक रिपोर्ट टाइम टू केयर में घरेलू औरतों की आर्थिक स्थितियों का खुलासा करते हुए दुनिया को चौका दिया था। वे महिलाएं जो अपने घर को संभालती हैं, परिवार का ख्याल रखती हैं, वह सुबह उठने से लेकर रात के सोने तक अनगिनत सबसे मुश्किल कामों को करती है। अगर हम यह कहें कि घर संभालना दुनिया का सबसे मुश्किल काम है तो शायद गलत नहीं होगा। दुनिया में सिर्फ यही एक ऐसा पेशा है, जिसमें 24 घंटे,
विश्व आर्थिक मंच द्वारा हाल में प्रस्तुत किये गए लैंगिक अंतर के आंकड़ों ने एक ज्वलंत प्रश्न खड़ा किया है कि शिक्षा, आय, सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र में आधी दुनिया को उसका हक क्यों नहीं मिल पा रहा है? निस्संदेह, हमारे सत्ताधीशों को सोचना चाहिए कि लैंगिक अंतर सूचकांक में भारत 146 देशों में 129वें स्थान पर क्यों है? लगातार महिलाओं की दोयम दर्जा की स्थिति का बना रहना नीति-नियंताओं के लिये आत्ममंथन का मौका हैं। निश्चय ही यह स्थिति भारत की तरक्की के दावों से मेल नहीं खाती। इसके बावजूद उम्मीद जगाने वाला तथ्य है कि पिछले वर्ष जनप्रतिनिधि संस्थाओं में महिलाओं की एक तिहाई हिस्सेदारी को लेकर विधेयक पारित हो चुका है। इसके बावजूद हाल में सामने आए आंकड़े परेशान करने वाले हैं और तरक्की के दावों पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं। यह विचारणीय प्रश्न है कि सरकार द्वारा महिलाओं के कल्याण के लिए अनेक नीतियां बनाने और कायदे कानूनों में बदलाव के बावजूद लैंगिक असमानता की खाई गहरी क्यों होती जा रही है। ये स्थितियां समाज में इस मुद्दे पर खुले विमर्श की जरूरत को बताती हैं। हालिया लोकसभा चुनाव में सीमित मात्रा में महिलाओं के संसद में पहुंचने ने भी कई सवालों को जन्म दिया है। निश्चित रूप से तमाम सरकारी घोषणाओं के बावजूद जमीन पर महिला असमानता के दंश विद्यमान रहना बड़ी चुनौती है।
लैंगिक अंतर सूचकांक में पिछले साल भारत 127वें स्थान पर था, जो 2022 में 135वें स्थान से 1.4 प्रतिशत अंक और आठ पायदान ऊपर था। लेकिन इस वर्ष फिर दो पायदान ऊपर चढ़ा है। सूचकांक में भारत के पड़ोसी देश बांग्लादेश को 99वें, चीन को 106वें, नेपाल को 117वें, श्रीलंका को 122वें, भूटान को 124वें और पाकिस्तान को 145वें स्थान पर रखा गया है। आइसलैंड (93.5 फीसदी) फिर से पहले स्थान पर है और डेढ़ दशक से सूचकांक में सबसे आगे है। शीर्ष 10 में शेष नौ अर्थव्यवस्थाओं में से आठ ने अपने अंतर का 80 फीसदी से अधिक हिस्सा पाट लिया है। निश्चित तौर पर किसी भी समाज में पूर्ण लैंगिक समानता हासिल करने में लंबा समय लगता है, लेकिन इस दिशा में सत्ताधीशों की तरफ से ईमानदार पहल होनी चाहिए। यह भी एक हकीकत है कि दुनिया के सबसे ज्यादा आबादी वाले देश के आंकड़ों की तुलना दक्षिण एशिया के छोटे देशों से नहीं की जा सकती। इसमें दो राय नहीं कि पूरी दुनिया में सरकारों द्वारा लैंगिक समानता के लिये नीतियां बनाने के बावजूद अपेक्षित परिणाम नहीं निकले हैं। जिसकी एक वजह समाज में पुरुष प्रधानता की सोच भी है। जिसके चलते यह आभास होता है कि आधी दुनिया के कल्याण के लिये बनी योजनाएं महज घोषणाओं तथा फाइलों तक सिमट कर रह जाती हैं।
भारत में महिलाओं की उपेक्षा, भेदभाव, अत्याचार एवं असमानता की स्थितियों का बना रहना विडम्बनापूर्ण हैं। भारत में रोजगार और शिक्षा के क्षेत्र में महिलाओं को समान अधिकार दिलाने के स्वर तो बहुत सुनने को मिलते हैं, महिलाओं को आजादी के बाद से ही मतदान का अधिकार भी पुरुषों के बराबर दिया गया है, परन्तु यदि वास्तविक समानता की बात करें तो भारत में आजादी के 75 वर्ष बीत जाने के बाद भी महिलाओं की स्थिति चिन्ताजनक एवं विसंगतिपूर्ण है। हमारे सत्ताधीशों के लिये यह तथ्य विचारणीय है कि हमारे समाज में आर्थिक असमानता क्यों बढ़ रही है? हम समान कार्य के बदले महिलाओं को समान वेतन दे पाने में सफल क्यों नहीं हो पा रहे हैं? जाहिर है यह अंतर तभी खत्म होगा जब समाज में महिलाओं से भेदभाव की सोच पर विराम लगेगा। यह संतोषजनक है कि माध्यमिक शिक्षा में नामांकन में लैंगिक समानता की स्थिति सुधरी है। फिर भी महिला सशक्तीकरण की दिशा में बहुत कुछ किया जाना बाकी है। देर-सवेर महिला आरक्षण कानून का ईमानदार क्रियान्वयन समाज में बदलावकारी भूमिका निभा सकता है। जरूरत इस बात की है कि राजनीतिक नेतृत्व इस मुद्दे को अपेक्षित गंभीरता के साथ देखे।
महिलाएं ही समस्त मानव प्रजाति की धुरी हैं। वो न केवल बच्चे को जन्म देती हैं बल्कि उनका भरण-पोषण और उन्हें संस्कार भी देती हैं। महिलाएं अपने जीवन में एक साथ कई भूमिकाएं जैसे- मां, पत्नी, बहन, शिक्षक, दोस्त बहुत ही खूबसूरती के साथ निभाती हैं। बावजूद क्या कारण है कि आज भी महिला असमानता की स्थितियां बनी हुई है। महिलाओं के सशक्तिकरण के लिये जरूरी है कि अधिक महिलाओं को रोजगार दिलाने के लिए भारत सरकार को जरूरी कदम उठाने होंगे। सरकार को अपनी लैंगिकवादी सोच को छोड़ना पड़ेगा। क्योंकि भारत सरकार के खुद के कर्मचारियों में केवल 11 प्रतिशत महिलाएं हैं। सरकारी नौकरियों में महिलाओं के लिये अधिक एवं नये अवसर सामने आने जरूरी है। भारत में महिला रोजगार को लेकर चिंताजनक स्थितियां हैं। सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकॉनमी (सीएमआईई) नाम के थिंक टैंक ने बताया है कि भारत में केवल 7 प्रतिशत शहरी महिलाएं ऐसी हैं, जिनके पास रोजगार है या वे उसकी तलाश कर रही हैं। सीएमआईई के मुताबिक, महिलाओं को रोजगार देने के मामले में हमारा देश इंडोनेशिया और सऊदी अरब से भी पीछे है। रोजगार या नौकरी का जो क्षेत्र स्त्रियों के सशक्तिकरण का सबसे बड़ा जरिया रहा है, उसमें इनकी भागीदारी का अनुपात बेहद चिंताजनक हालात में पहुंच चुका है। यों जब भी किसी देश या समाज में अचानक या सुनियोजित उथल-पुथल होती है, कोई आपदा, युद्ध एवं राजनीतिक या मनुष्यजनित समस्या खड़ी होती है तो उसका सबसे ज्यादा नकारात्मक असर स्त्रियों पर पड़ता है और उन्हें ही इसका खामियाजा उठाना पड़ता है।
दावोस में हुए वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम में ऑक्सफैम ने अपनी एक रिपोर्ट टाइम टू केयर में घरेलू औरतों की आर्थिक स्थितियों का खुलासा करते हुए दुनिया को चौका दिया था। वे महिलाएं जो अपने घर को संभालती हैं, परिवार का ख्याल रखती हैं, वह सुबह उठने से लेकर रात के सोने तक अनगिनत सबसे मुश्किल कामों को करती है। अगर हम यह कहें कि घर संभालना दुनिया का सबसे मुश्किल काम है तो शायद गलत नहीं होगा। दुनिया में सिर्फ यही एक ऐसा पेशा है, जिसमें 24 घंटे, सातों दिन आप काम पर रहते हैं, हर रोज क्राइसिस झेलते हैं, हर डेडलाइन को पूरा करते हैं और वह भी बिना छुट्टी के। सोचिए, इतने सारे कार्य-संपादन के बदले में वह कोई वेतन नहीं लेती। उसके परिश्रम को सामान्यतः घर का नियमित काम-काज कहकर विशेष महत्व नहीं दिया जाता। साथ ही उसके इस काम को राष्ट्र की उन्नति में योगभूत होने की संज्ञा भी नहीं मिलती। प्रश्न है कि घरेलू कामकाजी महिलाओं के श्रम का आर्थिक मूल्यांकन क्यों नहीं किया जाता? घरेलू महिलाओं के साथ यह दोगला व्यवहार क्यों?
नरेन्द्र मोदी की पहल पर निश्चित ही महिलाओं पर लगा दोयम दर्जा का लेबल हट रहा है। हिंसा एवं अत्याचार की घटनाओं में भी कमी आ रही है। बड़ी संख्या में छोटे शहरों और गांवों की लड़कियां पढ़-लिखकर देश के विकास में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। वे उन क्षेत्रों में जा रही हैं, जहां उनके जाने की कल्पना तक नहीं की जा सकती थी। वे टैक्सी, बस, ट्रक से लेकर जेट तक चला-उड़ा रही हैं। सेना में भर्ती होकर देश की रक्षा कर रही है। अपने दम पर व्यवसायी बन रही हैं। होटलों की मालिक हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियों की लाखों रुपये की नौकरी छोड़कर स्टार्टअप शुरू कर रही हैं। वे विदेशों में पढ़कर नौकरी नहीं, अपने गांव का सुधार करना चाहती हैं। अब सिर्फ अध्यापिका, नर्स, बैंकों की नौकरी, डॉक्टर आदि बनना ही लड़कियों के क्षेत्र नहीं रहे, वे अन्य क्षेत्रों में भी अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज करा रही हैं। स्त्री शक्ति के प्रति सम्मान भावना ही नहीं, समानता, सह-अस्तित्व एवं सौहार्द की भावना जागे, तभी उनके प्रति हो रहे अपराधों में कमी आ सकेगी और लैंगिक असमानता को दूर किया जा सकेगा।